Shadows of Life


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छूकर मेरे मन को...





किया तूने क्या इशारा



गुब्बारे और स्मृतियाँ





गुब्बारों को हवा में उछालते हुए बच्चे

बहुत प्यारे लगते हैं

हँसते-खिलखिलाते हुए बच्चे


पार्क में बैठे वृद्ध-जनों को

अच्छा लगता है अपने बचपन में खो जाना

स्मृतियों की आड़ी-तिरछी पगडंडियों पर

खेलते हुए बच्चों की तरह हो जाना


एक नहीं, कई गुब्बारे हवा में उछाले थे

जाने क्या हुए जिन ख्वाबों को पाले थे

न जाने कैसे गुब्बारों से धागे बंध गए

न जाने क्यों धागों से धागे उलझ गए


क्या हुआ था, क्या था और जो होना था

समझ न पाये, किस बात का रोना था

कई दिन बीते, कई और बीत जायेंगे

बेंचों पर स्मृतियों की कतारें होंगी

पार्क में गुब्ब्बारों से खेलने

बच्चे फिर भी आयेंगे


हमराज़



सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते लोग





कई बार याद आ जाती हैं

ईटों की वो आड़ी-तिरछी सीढ़ियाँ

जैसे पिछले ही शुक्रवार की शाम

सोचने लगा उनके बारे में

शहर के बीचों-बीच जब थम गयीं

न खत्म होने वाली

घर लौटने वालों की कतारें


उन सीढ़ियों पर जम गयी थी काई

पुरानी कई बारिशों की

और काई पर

उग आयी थी जिद्दी घास

जिसने छुपा दिया था गड्ढों को

जो बना गये थे चढ़ते-उतरते कदम

पिछले कई-कई बरसों से


मैं देखा करता था उन्हें

सीढ़ियों पर चढ़ते और उतरते

बारी-बारी, शायद अकेलेपन में वहाँ

बात करने की जगह थी कोई

शायद, वहाँ था कोई, जिससे

मिलने वो जाते थे, और जो

सीढ़ियों से नीचे आता नहीं था


फिर एक वो भी दिन आया

जब सीढ़ियों पर मैंने

अपना पहला कदम रखा

और हिचकते हुये साहस के साथ

बचते-बचाते, काई और घास में

छुपे गड्ढों से, लाँघ पाया

ईटों की आड़ी-तिरछी सीढ़ियों को


सीढ़ियों के उस पार एक आसमान था

जिसके नीचे था एक शहर

और शहर से दूर ढल रही थी शाम

और शाम में था एक सुकून

और पहली बार देखकर शहर को

ढ़लती हुई शाम में

अच्छा लगा मुझे मेरा अकेलापन


घंटों बातें करता रहा

मेरा अकेलापन ढ़लती हुई शाम से

और भरोसा ये लेकर ही लौटा

जब भी तेज होगी धूप, या कभी जब

उमस ही बढ़ जाये हद से ज्यादा

शाम आ जाया करेगी मिलने

सीढ़ियों के उपर मेरे अकेलेपन से


इसके बाद, सुबह तो फिर नहीं आयी

लेकिन शाम आती रही बार-बार

और मुझे लगा कि

सीढ़ियों में पड़े गड्ढे,काई और घास

सभी गवाह हैं,शहर में

सुबह चाहे आये न आये

दिन में एक बार शाम आती जरूर है


उस दिन मैं सोच रहा था

बहुत कम लोग रह गये हैं वहाँ

वो भी हैं उम्र की ढ़लान पर

सीढ़ियों पर चढ़ने और उतरने का

क्या अब भी है साहस उनमें बाकी

शाम तो वैसे उनके है इतने करीब

आ सकती है निचले कमरों में भी


उस दिन भी जैसे ट्रैफिक में

अचानक आ गयी थी शाम

दिल दहला देने वाले शोर में

सब उतावले थे सीढ़ियों पर चढ़ने के लिये

शहर में तो कहीं न कहीं

ईटों की सीढ़ियों के उपर

हर रोज आती है शाम


हमराज़



बारिशों के मौसम





एक वो दिन थे

जब बारिश होती थी

पैरों को खिड़कियों से निकालकर

बैठा करते थे घंटों

पैर से पैर टकराते

देखा करते थे एक टक

बादलोँ को आते-जाते


और कई बार तो नंगे पाँव

भाग जाते थे छत पर

बारिश में नहाने

और सबकी आँखें बचाये

कहीं किसी कोने में

लग जाते थे

मिट्टी के घरोंदे बनाने


सोचा है अब अगली बार

जब बारिशों के मौसम आयेंगे

शीशों से निकल कर बाहर

ढूंढेंगे वही पहली वाली बारिश

परवाह नहीं काले बादल

चाहे जितना भी छा जायेंगे


हमराज़



जीवन की परछाईयाँ



छू लेने दो मन ज़िन्दगी को

प्रदीप्त भास्कर सिंह
ए १ - १०३, एकोलेड, खराडी, पुणे - ४११०१४

© हमराज़