कई बार याद आ जाती हैं
ईटों की वो आड़ी-तिरछी सीढ़ियाँ
जैसे पिछले ही शुक्रवार की शाम
सोचने लगा उनके बारे में
शहर के बीचों-बीच जब थम गयीं
न खत्म होने वाली
घर लौटने वालों की कतारें
उन सीढ़ियों पर जम गयी थी
काई
पुरानी कई बारिशों की
और काई पर
उग आयी थी जिद्दी घास
जिसने छुपा दिया था गड्ढों को
जो बना गये थे चढ़ते-उतरते कदम
पिछले कई-कई बरसों से
मैं देखा करता था उन्हें
सीढ़ियों पर चढ़ते और उतरते
बारी-बारी, शायद अकेलेपन में
वहाँ
बात करने की जगह थी कोई
शायद, वहाँ था कोई, जिससे
मिलने वो जाते थे, और जो
सीढ़ियों से नीचे आता नहीं था
फिर एक वो भी दिन आया
जब सीढ़ियों पर मैंने
अपना पहला कदम रखा
और हिचकते हुये साहस के साथ
बचते-बचाते, काई और घास में
छुपे गड्ढों से, लाँघ पाया
ईटों की आड़ी-तिरछी सीढ़ियों को
सीढ़ियों के उस पार एक आसमान था
जिसके नीचे था एक शहर
और शहर से दूर ढल रही थी शाम
और शाम में था एक सुकून
और पहली बार देखकर शहर को
ढ़लती हुई शाम में
अच्छा लगा मुझे मेरा अकेलापन
घंटों बातें करता रहा
मेरा अकेलापन ढ़लती हुई शाम से
और भरोसा ये लेकर ही लौटा
जब भी तेज होगी धूप, या कभी जब
उमस ही बढ़ जाये हद से ज्यादा
शाम आ जाया करेगी मिलने
सीढ़ियों के उपर मेरे अकेलेपन से
इसके बाद, सुबह तो फिर नहीं आयी
लेकिन शाम आती रही बार-बार
और मुझे लगा कि
सीढ़ियों में पड़े गड्ढे,काई और घास
सभी गवाह हैं,शहर में
सुबह चाहे आये न आये
दिन में एक बार शाम आती जरूर है
उस दिन मैं सोच रहा था
बहुत कम लोग रह गये हैं वहाँ
वो भी हैं उम्र की ढ़लान पर
सीढ़ियों पर चढ़ने और उतरने का
क्या अब भी है साहस उनमें बाकी
शाम तो वैसे उनके है इतने करीब
आ सकती है निचले कमरों में भी
उस दिन भी जैसे ट्रैफिक में
अचानक आ गयी थी शाम
दिल दहला देने वाले शोर में
सब उतावले थे सीढ़ियों पर चढ़ने के लिये
शहर में तो कहीं न कहीं
ईटों की सीढ़ियों के उपर
हर रोज आती है शाम
हमराज़