पहली प्रकाशित ग़ज़ल - मुक्ता (द्वित्य), अक्टूबर १९८५





किसी तरह



किसी तरह दिल की परेशानी नही जाती

हकीकत जान लेता हूँ तो मानी नहीं जाती





सामने बहार है, पर वीरानी नहीं जाती

इन आँखों से दिल की कद्रदानी नहीं जाती


ये सुरते-बेनकाब पहचानी नहीं जाती

निगहों से कोई हकीकत मानी नहीं जाती


इक तस्वीर आ जाती है खुद ही निगाहों मेंं

वो शै, जिसे ढूँढे दिल, पहचानी नहीं जाती


लो कि पत्थर बऩ के आया अक्से-अहसास

कहते थे, आईने की बेजुबानी नहीं जाती


तड़पेगा यूँ ही दिल सीने मेंं उम्र तमाम

जो मोहब्बत से मिले, वो निशानी नहीं जाती


मिले हैं दिल को ज़ख्म बेशुमार तो क्या हुआ

ये वो दरिया है जिसकी रवानी नहीं जाती


हमराज़



विद्यालय (९वीं कक्षा) के दिनों लिखी गयी ग़ज़ल





रह-गुजारों में



रह-गुजारों में गुबार जहाँ होगा

मेरी हसरतों का कहकशाँ होगा





हमें नसीब दो-चार फूल भी नहीं

दामन में किसी के गुलसिताँ होगा


लुट चुके हैं राही कई बार वहाँ

दम भर में कारवाँ अब जहाँ होगा


कर चाक अपने दिल लहू के वास्ते

अब अश्कों से दर्द नहीं बयाँ होगा


दर्द, ग़म, धड़कन, दिमाग, आँसू

सब वहीं होंगे, दिलबर जहाँ होगा


ढूंढ, ऐ नज़र, दिल में ही कहीं उसे

कि वो कहाँ होगा, गर न यहाँ होगा


हमराज़



ख़त में रखा वो फूल





मेरी ख़ामोशी का अफ़साना हो गया

उनसे कोई बात कहे ज़माना हो गया


आज भी आती हैं यादों की खुशबुएँ

ख़त में रखा वो फूल पुराना हो गया


अब कहाँ जायेंगे सुकूँ की तलाश में

दर्द का ये शहर जाना-पहचाना हो गया


न मिलतीं निगाहें तो कहाँ जाते हम

मेरी शाम-ओ-दोपहर का ठिकाना हो गया


ख़ैर-मक्दम ऐ हुस्ने-बज़्म की आरजू

उस रह-गुजर से आना-जाना हो गया


चाहत में किसी शमाँ की आग के

ये दिल जला इतना, परवाना हो गया


हमराज़